अध्ययन-अध्यापन का ढंग

सद्भावी  सत्यान्वेषी बन्धुओं ! अध्ययन-अध्यापन और 'ज्ञानसमाज सुधार और जीवोध्दार तथा सुखी-सम्पन्न समाज हेतु सर्वप्रथम सबसे महत्तवपूर्ण एवं सभी के लिए ही एक अनिवार्यत:आवश्यक विधान है । अध्ययन-अध्यापन और ज्ञान पर ही समाज का पूरा भविष्य आधारित है। इस प्रकार सामाजिक सुधार हेतुयदि किसी की जिम्मेदारी है तो वह सर्वप्रथम एवं सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी गुरुजन  बन्धुओं पर ही है। समाज में सबसे अधिक महत्तव एवं साधन सुविधायेंयदि किसी को दिया जाता है तो उसमें सबसे प्रमुख एवं सबसे अधिक हमारे गुरुजन बन्धुओं को ही मिलनी चाहिये ताकि उनका मस्तिष्क सदा ही  निश्चिन्तता पूर्वक अध्यापन में ही लगा रहे।

विद्यार्थियों का समुचित विकास किस प्रकार होयह पूरी जिम्मेदारी गुरुजन बन्धुओं पर ही होना चाहिये । इसके साथ ही किसी भी पारिवारिक व्यक्ति को  गुरुजन बन्धुओं  के अनुशासन में दखल नहीं  देना चाहिये। सुधारात्मक अनुशासन विद्यार्थियों पर बराबर रहना चाहिये। विद्यार्थी ही भावी समाज का कर्णधार होता है। यह यादगारी  गुरुजन बन्धुओं को सदा ही अपने मस्तिष्क में रखना चाहिये । प्रत्येक समाज में अध्यापक बन्धुओं को आदर एवं सम्मान दिया जाना चाहिये। अपने पुत्र-पुत्रियों को गुरुजन बन्धुओं के निर्देशन में ही सदा रखना चाहिये । अध्ययन-अध्यापन शिष्टाचारिक और व्यावहारिक हो। विद्या को कभी भी व्यावसायिक नहीं अपितु लक्ष्यमूलक व्यावहारिक ही होना चाहिए । यह तब ही सम्भव है जब कि 'पिण्ड और ब्रम्हाण्डकी यथार्थत:जानकारी के साथ ही दोनों में आपस में ताल-मेल सन्तुलन बने-बनाये रहने वाला ही हो।

सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! गुरुजन बन्धुओं को चाहिए कि सबसे पहले विद्यार्थियों को शिष्टाचार का व्यावहारिक पहलू मजबूत करें ! 'सत्यं बद्धर्मं चर! (सत्य बोलें और धर्म पर रहें-चलें!)' अध्ययन का मूलमन्त्र होना चाहिये। इसकी व्यावहारिकता पर सबसे कड़ी दृष्टि होनी चाहिये । विद्यार्थियों में सर्वप्रथम शिष्टता एवं सदाचारिता ही कूट-कूट कर भरनी चाहिये। विद्यार्थियों के नैतिक और चारित्रिक विकास से सम्बन्धित विषय-वस्तुयें भी होनी चाहिये । वेदउपनिषद्रामायणगीतापुराणजैन-बौध्द साहित्य बाइबिलकुर्आन गुरुग्रन्थ साहेब आदि आदि का समन्वयवादी  भाव  और ज्ञान विद्यार्थियों में प्रविष्ट करना-कराना चाहिये जिसमें विद्यार्थियों को किसी भी वर्ग-जाति-सम्प्रदाय से ऊपर उठाकर भेद रहित भाव भरना सबसे प्रमुख उद्देश्य रखना चाहिये । ''वेदउपनिषद्रामायणगीतापुराण बाइबिलकुर्आन को विभिन्न भाषाओं के 'अन्तर्गत एक ही धर्म की शिक्षा-दीक्षा है''-- ऐसा ही भाव भरना सभी के लिये अनिवार्य होना चाहिए । वर्ग-जाति एवं सम्प्रदाय को कुछ तुच्छ स्वार्थियों एवं संकुचित विचार धाराओं वाले नासमझ व्यक्तियों से उत्पन्न एवं संचालित समाज विरोधी कार्यों को यह घृणित कार्य है प्रभावी रूप में ऐसी मान्यता देनी दिलानी चाहिये । विद्या का क्षेत्र सदा ही नीच-ऊँचगरीब-अमीरलिंग-जाति-वर्ग-सम्प्रदाय आदि भेद मूलक दूषित विधान से सर्वथा रहित और ऊपर सद्भावसद्विचारसद्व्यवहार और सत्कार्यरूप विधानों से युक्त होना चाहिये । गुरुजन बन्धुओं को इस तरफ सतत प्रयत्नशील होना-रहना चाहिये कि किसी भी विद्यार्थी के अन्दर किसी भी  विषय-वस्तु अथवा व्यक्ति के प्रति आपस में राग-द्वेष नामक सामाजिक कैंसर और कोढ़ न उत्पन्न होने पावे। राग-द्वेष दोनों ही समाज के लिये कैंसर और कोढ़ हैं जिससे हर किसी को ही सदा ही बचना-बचाना चाहिये अन्यथा समाज कुकृत्य से ग्रसित हो भ्रष्टाचार से गुजरता हुआ तहस-नहस-विनाश को प्राप्त हो जाया करता है-करेगा ही।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस 

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