सद्भावी मानव बन्धुओं ! प्राय: देखा जाता है कि समाज में या किसी संस्था विशेष के साथ कोई अच्छा कार्य होता है अथवा कोई अच्छी सुविधा उपलब्ध होती है अथवा कोई अच्छा सेवा-सहयोग मिलता है तो उसका वाह-वाही लूटने वालों की कमी नहीं होती है-- ताँता लगा रहता है । यानी प्राय: सभी ही उस यश के भागी दार बनने का प्रयत्न करना प्रारम्भ कर देते हैं । परन्तु ज्योंही कहीं कोई गड़बड़ी या बाधा या परेशानी अथवा दु:ख-कष्ट आदि उत्पन्न होता है या किसी पर पड़ता है तो उस गड़बड़ी या बाधा या परेशानी अथवा दु:ख-कष्ट का दायित्तव कोई भी लेने को तैयार नहीं होता है। जिसके माध्यम से दोष-गलती होता है, वह भी कतराने या दूसरे पर ही दोषारोपण करना शुरु कर देता है। यह तो स्थिति-परिस्थिति है आज के समाज की । हालांकि वास्तविकता बिल्कुल ही इसके विपरीत होती है। नीति का सिध्दान्त यह ही कहता है कि दोष अपने आप महत्ता दूसरों को देते रहना ही महापुरुषत्व होता है ।
सद्भावी बन्धुओं ! आज की परिस्थिति इतनी बद् से भी बद्तर हो गयी है कि अब सत्य-धर्म-न्याय और नीति को दृढ़तापूर्वक अपनाये वगैर वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को सुधारना और सवाँरना दुसाध्य हो चुका है क्योंकि 'सत्य-धर्म-न्याय-नीति' एक सुदृढ़ एवं अनुशासित समाज हेतु अथवा अमन-चैन समाज हेतु ये चार मूलभूत स्तस्भ हैं, जिसके वगैर समाज रूपी छत (मंजिल) का टिकना ही असम्भव होता है। जिस समाज में आधारभूत रूप में ये चारों नहीं होंगे, वह समाज मात्र विघटन का रूप ही नहीं लेगा अपितु उस समाज का पतन और विनाश भी अवश्यम्भावी ही होता है। यह कथन ध्रुव सत्य है।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस