अपना कर्तव्य देखें, अधिकार नहीं

सद्भावी मानव बन्धुओं आजकल यत्र-तत्र-सर्वत्र यही देखा जा रहा है कि सभी कर्मचारीअधिकारी,सामाजिक संस्थायेंराजनीतिक नेता गण आदि आदि प्रायसभी के सभी ही अपने अधिकारों के माँग में ही लगे हैं । कोई सभा कर रहा है तो कोई जुलूस निकाल रहा है। कोई सांकेतिक और कलम बंद हड़ताल कर रहा है तो कोई पूर्ण हड़ताल ही करने-कराने में लगा है । कोई 'जेल भरो अभियानमें लगा हैतो कोई विरोधघेरावएवं तोड़-फोड़ में ही लगा हुआ है। यहाँ तक कि समाज में उग्रता-आतंक एवं अराजकता(आदिसामाजिक विघटन रूपी खतरा अब विनाश के बहुत करीबतर पहँच गया है । इन सभी गड़बड़ियों के मूल में एक ही बात छिपी हैवह है 'अधूरी और प्रतिकूल शिक्षा पध्दति'। जब तक सत्य-धर्म रूप क्रमशऊपरसे नीचे को तात्त्विकताआध्यात्मिकता नैतिकताऔर सांसारिकता और नीचे से ऊपर को सांसारिकता-नौतिकता-आध्यात्मिकता और तात्त्विकता(परमसत्यतारूप चारों अंशों से युक्त'विद्यातत्तवम् पध्दतिसमाज में प्रभावी रूप से लागू नहीं होगी और विद्यातत्त्वम् (तत्त्वज्ञान)प्रधान होने-रहने वाला विद्यादाता गुरु द्वारा शिक्षा-दाता शिक्षक का स्थान ग्रहण कर हर स्तर की परमार्थ परक यथार्थत:  शिक्षा आपसी मेल-मिलापनीति-वैराग्यअध्यात्म-त्याग और ज्ञान-समर्पण की नहीं दी जायेगी तथा स्वार्थीलोभीलालचीअहंकारी अशिष्टअसंयमी और अनुशासनहीन शिक्षकों के स्थान पर त्यागीदानीनिरभिमानीशिष्टसंयमी और अनुशासित सज्जन निष्कामीपरमार्थी गुरुओं को प्रतिस्थापित नहीं किया जायेगातब तक समाज-सुधार और जीवोध्दार रूप समाज कल्याण की कल्पना भी व्यर्थ ही होगी। यह बात पढ़ने-सुनने में अजीब (आश्चर्यजनकभले ही लगे परन्तु वास्तव में यह बात ध्रुव सत्य है कि निकट भविष्य में धार्मिक राज्य विश्व में स्थापित होना ही है तथा ये सारी बातें या पध्दति ही समाज में प्रभावी रूप से लागू होनी ही है। अब जब जिसे भविष्य में लागू होना ही है तो क्यों नहीं सहजभाव से वर्तमान में ही उसे स्वीकार करके समाज में यश-कीर्ति पाने में यशभागी बनें ।

सद्भावी गुरुजन बन्धुओं । सर्वप्रथम तो यह जानने-जनाने की बात है कि वास्तव में कर्तव्य क्या है और अधिकार क्या है कर्तव्य और अधिकार रूप दोनों पहलुओं को स्थिरता एवं गम्भीरता के साथ मनन-चिन्तन करते हुए जानते-देखते हुए समझने की कोशिश किया जायेगा तो अन्ततयही मिलेगा कि कर्तव्य-कर्म ही अपना श्रेष्ठतम् अधिकार हैक्योंकि कर्तव्य प्रधान बनने या होने पर देखने को मिलेगा कि अधिकार तो कर्तव्य का ही छायारूप है। जहाँ भी कर्तव्य होगाउसके पीछे-पीछे अधिकार को छायारूप में रहना ही रहना है मगर अधिकार को देखते हुये कर्तव्य को ही छोड़ दिया जाय तो पीछे-पीछे छाया की छाया तो बनेगा नहींफिर तो अधिकार अपने आप ही समाप्त हो जाया करेगा। अर्थात् कर्तव्यजहाँ भी रहेगा वहाँ ही अधिकार को उसका सेवक यानी दास-दासी छायारूप बनकर रहना ही रहना होगा। कर्तव्य के वगैर अधिकार का तो कोई अस्तित्तव ही नहीं दिखलायी देता हैं। थोड़ा भी तो आप बन्धुगण भी गौर फरमायें (ध्यान दीजिएकि क्या कर्तव्य के वगैर अधिकार का कोई अस्तित्व  है और जब अधिकार का पृथक् कोई अस्तित्व ही नहीं है तो इस अधिकार के लिए प्रयाससभाजुलूस या लड़ाई-झगड़ा क्यों यह सब तो व्यर्थ ही हैफिर ऐसा क्यों किया जाय क्यों नहीं ईमान और सच्चाई से कर्तव्य पालन में ही लगा-लगाया जाय जिससे हर क्षेत्र में ही सुचारू रूप कार्य हो और अधिकाधिक उपार्जन होने लगे फिर तो सुख-समृध्दि जायेगी कहाँ-नि:सन्देह निश्चित ही आप सब का चरन चूमने लगेगी । फिर तो ऐसा ही क्यों न किया कराया जाय निश्चित ही किया कराया जाय ।

पुनदूसरे तरफ यह देखा जाय कि कर्तव्य करने पर कर्तव्य जितना किया जाता हैउतना भर का अधिकार सदा ही उसके पीछे लगा-बझा रहता ही है। इसलिये हम सभी बन्धुओं को अधिकार की मिथ्या लड़ाई न लड़कर बल्कि अधिकार के रूप में कर्तव्य की माँग और मिलने पर अधिक से अधिक श्रमपूर्वक कर्तव्य कर्म को करता हुआअधिक से अधिक कर्तव्य कर्म को पाने और करने की कोशिश करना चाहियेक्योंकि जैसे-जैसे आपका कर्तव्य-कर्म अधिक बढ़ता जायेगावैसे-वैसे ही आपको इसका फल(अधिकारअपने आप ही मिलता जायेगा । इतना ही नहींसबसे बड़ी और सर्वोत्तम बात तो यह होगी कि कर्तव्य-कर्म को लगन एवं परिश्रम से करने के बाद उससे मिला हुआ उसके फल के भोग-उपभोग में उत्तमतर आत्मसन्तुष्टि की भावना उत्पन्न होती है जो अनिर्वचनीय शांति और आनन्द प्रदान करती है । इन सब बातों के बावजूद भी कर्तव्य-कर्म कि 'हमको और अधिक काम मिलेअथवा 'हमारे काम का समय और अधिक किया जायअथवा 'हमसे अधिक से अधिक श्रम लिया जायआदि आदि बातों को लेकर कोई सभाजुलूससांकेतिक कलम बन्द या पूर्णतहड़ताल तथा विरोध या जेल-भरो अभियान आदि कहीं सुनने को भी नहीं मिलेगादेखना तो दूर रहा। हाँकहीं-कहीं बेकारी भत्ता की माँग और प्राप्ति भी हो रही है जो सरकारी अकर्मण्यता और अव्यवस्था का दुष्परिणाम है । क्या सरकार के पास कोई कार्य और व्यवस्था ही नहीं है ?

आज का मानव दिन पर दिन आलसी-सुस्तबिना श्रम किये लूट-खसोट कर जीने-खाने वाले हो गये हैं । कोई श्रम करना नहीं चाहता हैपरन्तु सभी अधिक से अधिक सुख-भोग के  आकांक्षी हैं । प्रायसबके सब बैठ-सोकर के ही रहना व रात-दिन ऐशो-आराम करना चाहते हैं और मौका मिलते हीचाहे जिस किसी भी प्रकार से हो ऐसे ही करते भी रहते हैं । आजकल केवल चोरडाकूगुण्डाबदमाशजुल्मी,आंतकवादी तो ही एमएल., ऊँचे-ऊँचे पदों पर भी एमपीऔर मंत्रिमण्डल के प्रायमंत्रीगण भी पदासीन हो जाया कर रहे हैं। जिन्दगी भर चोरीडकैतीजोर-जुल्म करते हुये वे नेता-मंत्री आदि होकर आईएसव आईपीएसऔर उच्चस्थ पदासीन अधिकारीगण को गाय-बैल और भैंस आदि की तरह मनमाना चरवाही कर-करा रहे हैं । जिसके दिमाग में कर्तव्य का अर्थ भी नहीं समा सकता हैवही ही आजकल आई00एसऔर आई0पी0एसपर शासन करने लगा है । फिर समाज की क्या गति  होगीजहाँ इन्जीनियर और डाक्टर भी ऐसे ही राजनेताओं के दया के पात्र हैंफिर स्वास्थ्य और सामाजिक संरचना की क्या स्थिति होगी अब यह स्वयं ही सोचना-समझना चाहिये । आजकल के चाटुकारिता भरे आरक्षण ने तो प्रतिभाओं को समाप्त प्रायकरते जा रहे हैं जिसका दुष्परिणाम समाज को भुगतना पड़ रहा है । प्रायसभी ही इसे देख रहे हैंमगर स्वार्थ और कुर्सी रूपी लोभ-लालच किसी को समझने-सम्भलने नहीं दे रही है। सभी को ही ऐसे गर्त (पतन-विनाशकी ओर बढ़ने को मजबूर करती जा रही है।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस 

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