गुरुजन बन्धुओं से

सद्भावी गुरुजन बन्धुओं ! 'दोष रहित सत्य प्रधान मुक्ति और अमरता से युक्त सर्वोत्ताम जीवन विधान और अमन-चैन का सुखी समृध्द समाज स्थापित करने हेतु गुरुजन बन्धुओं को सबसे पहली तथा सबसे बड़ी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी और उसे सुचारुरूप से वहन करनी चाहिये । गुरुजन बन्धुओं को सर्वप्रथम तो स्वतयह संकल्प लेना होगा कि हम 'सद्भाव एवं सद्व्यवहार प्रधान शिष्ट एवं संयमित जीवन को ही आधार बनाचलते-चलाते हुए, 'सत्यं बद्धर्मं चर'(सत्य बोलें और धर्म पर रहें-चलें !) जो जीवन  का सर्वोत्तम लक्ष्य हैको ही एकमात्र लक्ष्य बनाकर आगे-पढे-पढ़ायेंगे बढ़ें-बढ़ायेंगे।'

अग्रलिखित प्रार्थना को अर्थ और भाव सहित यथार्थतव्यवहार में उतारते हुएनिष्काम भाव से अपने जीवन के हर पहलू में उसकी सार्थकता को पूर्णतसफल बनायेंगे । यह संकल्प स्वत:गुरुजनवृन्द को लेना और विद्यार्थियों को भी दिलाना चाहिए।
''हे प्रभो आनन्ददाताज्ञान हमको दीजिये;
शीघ्र सारे दुर्गुणों कोदूर हमसे कीजिये ।
लीजिये हमको शरण मेंहम सदाचारी बनें;
ब्रम्हचारी धर्म रक्षकवीर ब्रतधारी बनें ॥

इस प्रकार इस प्रार्थना को ऑंख बन्दकरध्यान मुद्रा में मात्र गाने से ही इसकी सार्थकता साबित(प्रमाणितनहीं होगी बल्कि इसके अन्तर्गत क्या अर्थ-भाव है यथार्थतउस अर्थ-भाव को जीवन-व्यवहार में कैसे लाया जाय अपने जीवन में इसको किस प्रकार पूर्णतसार्थक बनाया जाय आदि-आदि बातों को दृढ़ता एवं गम्भीरता के साथ मनन-चिन्तन करते हुयेअपने जीवन में इसको तथा अपने जीवन को इसमें पूर्णतएकरूपता का रूप देनी होगी । तब जाकर सर्वत्र 'दोष रहित सत्य प्रधान उन्मुक्तता और अमरता से युक्त सर्वोत्तम जीवन विधानवाला अमन-चैन से युक्त समाज  स्पष्टतदिखलाई देगा। प्रायसभी ही अपनाने और उसी पर ही रहने-चलने लगेंगे तो मोक्ष सहित जीवन का सच्चा आनन्द भी पाने लगेंगे । ऐसे ही उन्मुक्तता-अमरता सहित समृध्दि सम्पन्नता वाला अमन-चैन (शान्ति-आनन्दवाला समाज  स्थित-स्थापित हो जायेगा । 

सद्भावी गुरुजन बन्धुओं ! 'सत्यं बद्, धर्मं चर (सत्य बोलें और धर्म पर रहें-चलें !)  ' अपने आप में इतना समर्थ होता है कि अपने को इसमें (सत्य धर्म में लग लगाकर यानी अपने जीवन को दृढ़ता पूर्वक सत्य धर्म पर चला-चलाया जाय तो यह स्वयं ही हमारा अगला रास्ता स्पष्ट करते हुये आगे बढ़ाता जाता है। यदि दृढ़ता पूर्वक अपने आप को सत्य धर्म पर स्थित रखें तो इसमें रत्ती भर भी सन्देह नहीं कि जीवन को सफल-सार्थक न बना दे और जीवन को मुक्ति और अमरता रूप  लक्ष्य तक अमन-चैन और परमशांति और परम आनन्द के साथ ही परमपद तक निश्चित ही न पहँचा दे । प्रह्लाद, हरिश्चन्द, श्रीरामचन्द्र जी महाराज, युधिष्ठिर, विक्रमादित्य आदि के राज्य-शासन में प्रजा कितनी खुशहाल, कितना अमन-चैन का जीवन जी रही थी जिसका कोई हिसाब नहीं था । यह सब 'सत्यं बद्, धर्म चर' (सत्य बोलें और धर्म पर रहें-चलें !) पर रहने-चलने का ही परिणाम था ।

ये उपर्युक्त उदाहरण कोई कपोल कल्पित कल्पना पर आधारित नहीं अपितु इतने प्रभावी और व्यावहारिक हैं कि आजकल भी हम सब इस 'सत्यं बद्-धर्मं चर' (सत्य बोलें और धर्म पर रहें-चलें!) को जान-देखकर बोध प्राप्त कर अपने जीवन में दृढ़ता पूर्वक लागूकर करा सकते हैं कि इस पर (सत्य धर्म पर) चलते हुये कितना शांति और आनन्द मिलता है--इसकी हम आप कल्पना ही नहीं कर सकते क्योंकि यह अकल्पनीय एवं अनिर्वचनीय होता है। इसका अर्थ इसी से जान-समझ लिया जाय कि इससे युक्त व्यक्ति सम्राट का पद क्या, इन्द्र-ब्रम्हा-शंकरजी का पद भी इसके बदले नहीं चाहता।

हम तो भगवत् कृपा से प्राप्त तत्तवज्ञान और अपने व्यावहारिक अनुभव और बोधा के आधार पर आदरणीय गुरुजन बन्धुओं से बार-बार साग्रह निवेदन करते हुये कहेंगे कि शिष्ट एवं संयमित गुरुजन ही शिष्ट एवं संयमित- अनुशासित अमन-चैन का विद्यार्थी और समाज भी स्थापित कर-करा सकते हैं ।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस 

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