विश्व विनाश के कगार पर, मगर भगवत् कृपा विशेष

'सत्य-धर्म-न्याय-नीतिरूप चारों के श्रेष्ठता एवं उत्तमता को समाज में आन्तरिक रूप में तो सभी स्वीकार करते ही हैंपरन्तु जैसे ही उन्हें अपनाने तथा इसी के आधार पर रहने-चलने को कहा जाता है तो बाह्य-विकृत परिस्थितियाँ उनके अन्दर हिलोरें मारकर ऐसा तरंग उत्पन्न करती हैं कि उनका हिम्मत या साहस ही टूट जाता हैक्योंकि आजकल समाज में आडम्बरियों,पाखण्डियोंमिथ्यावादियों और अन्यायियों द्वारा 'सत्य-धर्म-न्याय-नीतिमें ही शक्ति-सामर्थ्य होता-रहता है-- ऐसे विश्वसनीयता को ही प्रायसमाप्त कर-करा दिया गया  है।

 आज प्रायकिसी में भी साहस ही नहीं रह गया है कि वह अपने को सत्यवादी कह सके अथवा सत्यवादी रूप में रह-चल सके। अपने को धार्मिक कह सके अथवा शुध्दता एवं पवित्रता के साथ धार्मिकता के रूप में रह  सके। अपने को न्यायी कह सके अथवा न्याय प्रियता पर ठीक-ठीक से रह-चल सके । अपने को नैतिक कह सके अथवा नैतिकता पर टिका रह-चल सके । आज का शासन और समाज तो हिरण्याक्ष,हिरण्यकश्यपरावणकंशफिर्औनहेरोदेशकुरैश आदि-आदि धर्म विरोधी अथवा अधार्मिक  शासन और समाज से भी यानी बद् से भी बद्तर स्थिति-परिस्थिति तक पहँच गया है। बात अब यहीं तक नहीं रह गयी है कि यह कितना विकृत हो गया है बल्कि बात तो अब यहाँ तक पहुँच चुका है कि आखिरकार विनाश (प्रलयमें अब देरी ही क्यों हो रहा है विश्व-विनाश हेतु (सज्जनों या भगवद् भक्तों या सेवकों-प्रेमियों के अतिरिक्तअब कौन जोर-जुल्मअत्याचार-भ्रष्टाचार अथवा घोर घृणित कार्य होना बाकी रह गया हैं जिससे कि शीघ्रातिशीघ्र मिथ्यावादियोंअधार्मिकोंअत्याचारियों, दुराचारियों आदि दुष्टों का विश्व से विनाश नहीं हो रहा है इस समय विचारणीय बात यही है कि अब देर क्योंइससे तो यही महसूस होता है कि वर्तमान समाज पर अभी भी खुदा-गॉड-भगवान् की विशेष कृपा है जिससे कि वे समाप्ति-प्रलय के बजाय सुधारने-सवाँरने के प्रयास में लगे है और सभी को ही अभी और ही मौका-सुअवसर दे रहे हैं कि सुधर जाओं पाप-अधर्म छोड़कर धर्म अपना लो ।

सद्भावी सत्यान्वेषी मानव बन्धुओं ! 'सत्य-धर्म-न्याय-नीतिप्रधान समाज ही शिष्ट-संयमी-अनुशासित और अमन-चैन-समृध्दि का समाज हो सकता है । यह समाज ऐसा विशिष्ट होता है और होगा भी कि जो बिल्कुल ही त्यागीसमर्पणीसद्भावीसद्विचारीसद्व्यवहारीसत्प्रेमीसत्कर्मी सदाचारी और परमार्थी होता है तथा निकट भविष्य में होगा भी। इस समाज के लोगों में वाह-वाही लूटने तथा दोषों को पराये माथे मढ़ने वाली बात नहीं होती है । यह समाज सदा ही यश दूसरे को देता है तथा दोषों के दायित्व को अपने पर लेता हैक्योंकि इसे 'सत्य-धार्म-न्याय-नीतिमें अटूट श्रध्दा एवं विश्वास होता है तथा खुदा-गॉड-भगवान पर भरपूर भरोसा है कि मैं यदि निर्दोष होऊँगा तो कदापि मैं दण्डित नहीं हो सकता तथा साथ ही यदि मैं दोषी हूँ तो छिपकर अथवा मिथ्या बोलकर बच नहीं सकता। वह यह समझता है कि बचने का उपाय भी सच-सच दोषों को स्वीकार करते हुए क्षमायाचना करके भविष्य में निर्दोष जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेकर ही होता है । इसलिये वाह-वाही का कोई लाभ नहीं और दोष अपने पर स्वीकार कर लेने से कोई हानि भी नहीं।

अपने ऊपर दोषों के दायित्व को स्वीकार कर लेना भी सामान्य बात नहीं हैबल्कि इससे व्यक्ति के अन्दर छिपे हुये सत्यवादिता एवं साहस की महत्ता ही प्रकट होती है और वह व्यक्ति महापुरुष और सत्पुरुष कहाने लगता है । प्रत्येक व्यक्ति को ही अपना स्वभाव ही ऐसा बनाना चाहिये कि अच्छाइयों को दूसरे का माने और कहें तथा बुराइयों और दोषों को अपना माने और कहे तथा अपने को और समाज को उस बुराईं-दोष से मुक्त होवे और करावे। यह महापुरुष और सत्पुरुष बनने-होने का सरल एवं सहज उपाय है । प्रतिष्ठित और मर्यादित जीवन हेतु यह एक सहज पध्दति है । जिसे हर किसी को ही अपनाना चाहिएअपनाना ही चाहिए।

सद्भावी  गुरुजन बन्धुओं मैं तो बार-बार अशिष्टअसंयमितअनुशासनहीन एवं विकृत सामाजिक रूप को देखकरइसके दायित्तव को दूसरों पर ले भी जाना चाहता हूँ तो भी  सत्य जो हैमुझको बार-बार खींचकर इसके दोषों का दायित्तव गुरुजनवृन्द पर ही लाता है जिसके कारण समाज के बर्बादी का दायित्तव गुरुजन  बन्धुओं पर ले जाने हेतु मजबूर हूँ। वास्तविकता भी यही है। यदि गुरुजन बन्धुओं से भी इस दायित्व के  सम्बन्ध में पूछा जाय तो वे भी समस्त दोषों को सत्यतअपने पर स्वीकार करने हेतु मजबूर हो जायेंगेक्योंकि विद्यार्थी ही भावी समाज के कर्णधार होते हैं और विद्यार्थियों के समुचित संरचना की सारी जिम्मेदारी गुरुजनवृन्द पर ही होनी चाहिये। गुरुजनवृन्द को चाहिए कि जिम्मेदारी स्वीकारते हुऐ यथाशीघ्र इसे सुधारने-संवारने का यत्न करें ।

 यदि विद्यार्थी मिथ्यावादी हुआनास्तिक (अधार्मिकहुआअन्यायी हुआ तथा अनैतिक एवं दुराचारी हुआ तो आखिर क्यों  हुआ छोटी अवस्था में ही उसे शिष्टसंयमी एवं अनुशासित क्यों नहीं बनाया गया हालाँकि गुरुजन  बन्धुओं के साथ-साथ पारिवारिक संरक्षक भी दोषी होता है फिर भी गुरुजन  पर ही इसका पूरा दायित्व होना चाहिये। गुरुजन  ही शिष्टसंयमीसत्यवादीधार्मिक एवं अनुशासित समाज की रचना कर सकते हैं।

सामाजिक संरचना की क्षमता-शक्ति गुरुजनवृन्द में ही होती रहती है। यदि वे ईमान और सच्चाई से चाहें तो सामाजिक संरचना नि:संदेह असाघ्य तो असाध्य हैदु:साध्य भी नहीं रह जायेगा अपितु सहज और सरल हो जायेगा । निसन्देह गुरुजनवृन्द में यह क्षमता-सामर्थ्य है । सरकार को भी गुरुजनवृन्द के व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्याओं का समाधान रूप भरपूर धन-व्यवस्था की व्यवस्था देनी चाहिए जिससे कि गुरुजन बन्धु निश्चिंत होकर विद्यार्थी और समाज को सुधारने-संवारने में जी-जान से लग जांय ।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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