सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! आज समाज में चोरी-डकैती, लूट-अपहरण, हत्या-अत्याचार-भ्रष्टाचार जोर जुल्म और आतंक का जो वातावरण चारो तरफ उग्रतम रूप लेकर छाया हुआ है । इसके मूल में एकमात्र स्वार्थ ही है जो आज समाज को ऐसे विकृत स्तर तक पहुँचा दिया है । स्वार्थ के कारण ही आज शासन के अन्तर्गत शुरू से अन्त तक घूस रूपी घोर घृणित भ्रष्टाचार छाया हुआ है । आज प्राय: कोई कर्मचारी, अधिकारी, एम. एल. ए., एम. पी., यहाँ तक कि मंत्रीगण भी बिना घूस या कमीशन (आंशिक प्राप्ति) के अधिकतर ऐसे होते जा रहे हैं जो कार्य करते ही नहीं। घूस तो अब इन लोगों के जुबान पर घूस न रहकर सुविधा शुल्क कहलाने लगा है । एम. एल. ए., एम. पी., मन्त्री जी लोगों के लिये इसका सुधारात्मक नाम चन्दा पड़ गया है जो एक प्रकार का अग्रिम घूस ही होता है जिसका दुस्परिणाम वस्तुओं की महँगायी आदि-आदि जनमानस को झेलना पड़ता है । यही कारण है कि समाज में अनुशासन व व्यवस्था नाम की कोई चीज तो सुनने को ही नहीं मिल रही है, देखना तो दूर रहा।
इस प्रकार के स्वार्थी समाज की देन भी गुरुजन बन्धुओं की ही है। यह एक अनिवार्यत: सत्य सिध्दान्त है कि स्वार्थी व्यक्ति को कदापि गुरु नहीं बनना चाहिये अथवा प्रशासन को चाहिए कि स्वार्थ प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को अध्यापन हेतु कदापि नियुक्त न करे, क्योंकि स्वार्थी प्रवृत्ति वाले गुरु से परमार्थिक समाज कदापि स्थापित नहीं हो सकता और जब तक गुरुजन वर्ग परमार्थिक प्रवृत्ति का नहीं होगा, तब तक समाज सुधार और जीवोध्दार की आशा एक कोरी कल्पना मात्र बनकर ही रह जायेगी । 'शिष्ट,संयमित, अनुशासित और एक दूसरे के सहायक- सहयोगी रूप समाज की स्थापना हेतु नि:स्वार्थी गुरुजन तथा निष्काम सेवा और परमार्थी प्रवृत्ति वाला ही अध्यापक अनिवार्य है।'
सद्भावी गुरुजन बन्धुओं ! आप गुरुजन बन्धुओं को चाहिये कि विद्यार्थी के अन्तर्गत स्वार्थ और भेदभाव रहित परमार्थ की ही शिक्षा-दीक्षा दिया जाय। जैसी जानकारी होती रहती है, वैसा ही कार्य भी होता रहता है। हर कार्य का आधार 'ज्ञान' (जानकारी) ही होता है तथा होना भी यही चाहिये।
गुरुजन बन्धुओं ! कम से कम थोड़ा भी तो मनन-चिन्तन करके जानते-देखते हुए समझने की कोशिश करें कि समाज को बर्बाद करने से क्या आपको शांति और आनन्द की अनुभूति अथवा सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति हो रही है ? यदि इस पर थोड़ा भी मनन-चिन्तन करेंगे तो पायेंगे कि आपको भी सामाजिक विकृति-विघटन का शिकार होना पड़ रहा है, जिससे आप स्वयं काफी अशान्त, चिन्तित और दु:खित हैं,असन्तुष्ट हैं । अपने और अपने विद्यार्थी मण्डल के सुधार हेतु प्रयत्न करने-कराने को कभी-कभार सोचते भी हैं तो असंयमित आचरण, व्यवहार एवं स्वार्थी मनोवृत्ति के कारण उस पर चल ही नहीं पाते हैं । चलने का भी प्रयत्न करते हैं तो अपने अगल-बगल अशिष्ट- असंयमित और अनुशासनहीन व्यक्तियों के असहयोग एंव बाधा के कारण उस पर टिक (स्थिर) ठहर ही नहीं पाते हैं, क्योंकि आपके अन्दर न तो विश्वास रह गया है और न साहस ही । विश्वास और साहस तो सन्देह और स्वार्थ रूप छिद्र से आपके अन्त:करण से बह-निकल कर बाहरी वातावतण में विलीन हो गया है जिसको पुन: वापस अन्त:करण में लाना भी कुछ तो योग-साधाना या आध्यात्मिक साधना अथवा साधानात्मक क्रिया से और पूर्णत: ठीक-ठीक रूप में तत्तवज्ञान रूप सत्यज्ञान पध्दति से परमप्रभु रूप भगवत् कृपा से ही सम्भव है, अन्यथा ठीक होना कदापि सम्भव नहीं है । आप सब समाज के सबसे जिम्मेदार व्यक्ति हैं। जरा सोचें तो सहीं कि क्या ये बातें सही ही नहीं हैं ? निश्चित ही जबाव मिलेगा कि सही ही है ।
सद्भावी गुरुजन बन्धुओं ! यथार्थता यानी वास्तविकता के साथ देखा जाय तो यह स्पष्ट (खुलासा) होते देर नहीं लगेगी कि स्वार्थ ही एक मात्र सभी बुराइयों, अत्याचारों, भ्रष्टाचारों, जोर-जुल्मों आदि में मुख्य रूप से मूलत: निहित है। स्वार्थ के कारण ही अशिष्टता, असंयम, अनुशासनहीनता, मर्यादाहीनता,अभिमान-अहंकारिता आदि विघटनकारी गड़बड़ियाँ उत्पन्न होती और फैलती हैं । इसके (स्वार्थ के)समूल सफाया हेतु सर्वप्रथम, अधययन- अधयापन के अन्तर्गत ही भेद-भाव रहित परमार्थपरक शिक्षा-दीक्षा को ही गुरुजन बन्धुओं द्वारा अपनाना होगा जिसके लिये पहले-पहल तो गुरुजन बन्धुगण को ही स्वार्थी मनोवृत्ति को घृणित जैसा त्याग करते हुए अपने-अपने विद्यार्थी समाज में भी स्वार्थ के प्रति घृणा भाव उत्पन्न करना । साथ-साथ निष्काम एवं परमार्थी प्रवृत्ति को स्वत: अपनाते हुये उन्हें भी अपनाने हेतु उत्प्रेरित तथा स्पष्ट और पुष्ट शास्त्रीय-प्रमाणों से जनाते-समझाते हुये उनके दिल व दिमाग में बैठा देना होगा ताकि वे भी स्वत: ही स्वार्थ से घृणा और परमार्थ से प्रेम करने लगें तथा व्यवहार में लानें और अपने जीवन में अपनाने लगें । परमार्थी समाज हेतु स्वार्थ का त्याग अनिवार्य है । स्वार्थ ही तो पतन और विनाश का बीज और परिवार ही उसका हरा-भरा वृक्ष होता है । परिवार में स्वार्थ उत्पन्न होता और पलता-फूलता-फरता है । परिवार परमार्थ का घोर विरोधी और शत्रु होता है।
----- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस